Friday 9 February 2018

अन्तराशब्दशक्ति सम्मान 2018

इस पल मैं क्या कहूँ???

2010 से फेसबुक पर हूँ। नवम्बर 2011 से ब्लॉग पर लेखन कर रही हूं पर अचानक 20 फरवरी 2012 को सुगर लेवल के बहुत कम हो जाने से शरीर के दाएं हिस्से का बहुत कमजोर हो जाना और नागपुर केअर हॉस्पिटल से ये कहकर घर भेज दिया जाना कि ये हाईपोग्लुसोमिया का अटैक है जो नर्वस सिस्टम को डैमेज कर गया, पूरी तरह नार्मल होना संभव नहीं।
लौटकर घर आते ही निराशा ने घेर लिया, घर से निकलना लगभग बंद कर दिया, डॉ चाचा-चाची के क्लीनिक और होमियोपैथी डॉ मानकर दीदी डॉ चौधरी की देखरेख में समय कटता रहा, गहन निराशा में न चली जाऊं इसके लिए समकित ने एक उपाय निकाला कि पुराना लिखा हुआ सबकुछ ब्लॉग में लिखो, fb पर पोस्ट करो, ताकि मन को व्यस्त रखकर निराशा से दूर रह सको। 6 महीने लगे इन सब से बाहर निकलने में, आज भी गांव और परिवार के कई लोग ताने देते हैं कि सोशल मीडिया में ही नज़र आती हूँ क्योंकि अपनी तकलीफों के कारण खुद को एक कमरे तक सीमित कर लिया था,.. ।
बहुत मुश्किल होता है जब पूरी तरह वर्किंग , घर, व्यापार और बच्चों में व्यस्तता वाली लाइफ को एक कमरे में सीमित कर लेना। लेकिन बहुत आसान होता है जब जुनून हो कि किसी पर निर्भर नहीं होना है, बच्चों के सामने निराश न होने का दृढ़ निश्चय और लेखन का साथ।
2012 के अंत तक फेसबुकिया लेखक बन ही गई और तब तक वापस कमजोर ही सही पर पैरो पर अपने चलना सीख लिया। प्रीति अज्ञात, पुनीत, सैफ़ी जी जैसे अनेक साथियों ने विश्वास दिलाया, और 2013 में ही "मन की बात" और "मेरा मन" प्रकाशित हो गई। मई 2013 में मेरा मन का विमोचन जोधपुर में हुआ तब अपने पापा की आंखों में नमी और अपने बच्चों की आंखों में चमक ने तमाम विपरीत परिस्थितिओं के बाद भी सतत चलते रहने की प्रेरणा दी। तब से आज तक न कलाम रुकी न मैं। शुक्रगुज़र हूँ समकित की जिन्होंने सही समय पर सही दिशा में मन को मोड़ दिया। यदि तब निराशा और लेखन में से एक को न चुना होता तो आज ये खुशी नसीब न होती।
*बहुत घमंडी सी एक महिला जिसने इनबॉक्स में ताले डाल रखे थे, न शक्ल न अक्ल जाने किस बात का गुमान है जैसे अकेले ही सब कुछ कर लेगी वो भी आज के जमाने मे जहाँ आगे बढ़ना आसान नहीं है।
ये सब मेरे लिए कहे गए वो शब्द थे जो अपनों में से ही किसी ने कहे थे। खैर,...*
समय गुजरता रहा, बिना मैसेंजर के भी रिश्तों के मामले में बहुत खुशनसीब रही। मुकेश भैय्या, अर्पण, गुलशन, केदार भाई, पवन, लोकेश, अनिल चिंतित, विफल जी, मनोज जी, गुंजन दी, पिंकी जी, कीर्ति, सुषमा, कैलाश भैय्या, रानी-प्रदीप जी, प्रीति अज्ञात, स्वाति, अंशु, आदित्य आदि स्वजनों से मिलकर बना एक छोटा सा ही सही पर अनूठा परिवार।
अगस्त 2012 एक साहित्यिक समूह 'मैखाना' जिसमें शामिल अर्पण और मृदुल जोशी जी सहित अनेक की रात भर की शेरो-शायरियां मेरे तकलीफ के दिनों में रात्रि जागरण का सहारा हुआ करती थीं। आदतानुसार कभी संवाद स्थापित नही किया पर मैखाना का परिचय आज मेरा परिवार है जिसपर जितना नाज़ करूँ कम है।
2015 से खुद को चारदीवारी के दायरे से बाहर निकाला, और पहली बार हम सब साथ साथ के आयोजन में बीकानेर अकेली गई। बहुत सारा डर, सभी लोग अनजान और एक ईमेल के आमंत्रण पर बीकानेर जाना थोड़ा अजीब था, वहां जाकर जोधपुर में संकलनों और मेरा मन के विमोचन में मिला बादल चौधरी मिला । पीछे से दी का सम्बोधन सुनकर जान में जान आई कोई तो था उस अनजान शहर में,.. । दीपक, कासिम भाई, आशा-गोवर्धन जी, शशि-किशोर श्रीवास्तव जी, सोमा विश्वास, संजय साफ़ी, निवेदिता श्रीवास्तव, नेहा नाहटा, ऋषि अग्रवाल और कई नए रिश्तों से जुड़ी, परिचय का दायरा बढ़ता गया। और हिम्मत और आत्मविश्वास भी बढ़ा। फिर लगातार दिल्ली पुस्तक मेला, करनाल, भोपाल, ग्वालियर, पटना, ओरछा, झांसी, नागपुर, जबलपुर, इलाहाबाद, फरीदाबाद, अयोध्या , कश्मीर, हरिद्वार जैसे अनेकानेक यात्राएं सतत जारी रहीं।
2016 राष्ट्रीय कवि संगम से जुड़ना, और तब जाकर बालाघाट अपने ही शहर की संस्था सहमत में जगह बना पाना। महिलाओं के लिए जो जो समस्याएं आगे बढ़ने के लिए सामने आती है, परिवार और समाज की परिस्थितियां किस तरह अवसाद का और कलात्मकता के दमन जे साथ साथ निजता के लिए हनन का कारण बनती है सब कुछ सहा,.. तब मन में एक इच्छा जागी की महिलाओं के लिए मुजगे कुछ करना है।
जो सखियाँ शुरुआत से ही जुड़ी हैं मुझसे वो जानती हैं, *सृजन, फिर सृजन फुलवारी, फिर राष्ट्रीय कवि संगम की सृजन फुलवारी, फिर सृजन- शब्द से शक्ति का, तक जा सफर कितना मुश्किल रहा मेरे लिए।*
'सृजन- शब्दशक्ति' सम्मान समारोह 2016 में जैन प्रतिभा मंच से मनोज जैन 'मधुर' जी ने भोपाल के आयोजन ने मेरा साथ दिया, फिर राघवेंद्र ठाकुर सर के jmd पब्लिकेशन और जिज्ञासा सहित एक साल में 4 बड़े आयोजन किये, 'सृजन- शब्दशक्ति' इस दौरान 'अन्तरा-शब्दशक्ति' के रूप में अपनी पहचान बना चुका था। मन में एक इच्छा जागी वेब पत्रिका शुरू करनी है क्योंकि अंतरा के नाम से भोपाल से कोई और पत्रिका निकलती है अतः वैधानिक तौर पर सिर्फ अंतरा के नाम से रजिस्ट्रेशन सम्भव नहीं था, न संस्था का न पत्रिका का। तनाव में थी क्या करूँ। एक दिन मातृभाषा.कॉम के मेल में अर्पण का नाम देखा और कॉल कर लिया अचानक मेरे सपनों को पर मिल गए। बहुत अधिक व्याधियों के साथ एक बहुत सकारात्मक काम हुआ जुलाई में अन्तरापरिवार के लिए एक बड़ा सरप्राइज़ अन्तराशब्दशक्ति की मासिक वेब पत्रिका।* शुरू के 3 महीने मेरे लिए मुश्किल थे सीखना घर बैठे सब कुछ इतना भी आसान नहीं, पर सब संभव किया डॉ. अर्पण ने।
समूह के नाम और समूह के नियमों को लेकर मनोज जी से मतभेद बढ़ते रहे । अगस्त में 7 संकलनों की घोषणा की जिसकी अंतिम तिथि 30 सितंबर रखी पर स्वास्थ्य बिगड़ने से काम टलता गया। अकेले सब कैसे कर पाऊंगी ये भी एक बड़ी चुनौती थी। क्योंकि 1-2 नहीं 7 संकलन की बात थी। इसी दौरान और भी कई समस्याएं आई।
वैधानिक तौर पर जब काम सही और सटीक करने हो तो कुछ कठिन निर्णय लेने होते हैं, ऐसे में मनोज जी ने अंतरा छोड़ दिया । काम तब भी अकेले ही करने थे पर इस समय मानसिक तौर पर खुद को कमजोर महसूस किया। सब से ली सहयोग राशि मेरे लिए तब तक बोझ लगने लगी थी। लगातार पैरों की तकलीफ बढ़ती जा रही थी एक पल को ऐसा लगा मानों मुझे कुछ हो गया या मैंने अपने पैर ही खो दिए तब??????
नवम्बर में अंततः अर्पण ने अंतराशब्दशक्ति को सेन्स समूह में जगह दी, और साथ ही मजबूती से मेरे आत्मविश्वास को झकझोरा कि आप निराशा की कोई बात नही करोगी। अब मैं निश्चिंत होने लगी। पूरी हिम्मत से एक बार फिर संकलनों के काम में जुट गई । नवम्बर से जनवरी आ गई संकलनों को पुस्तक मेले तक आ जाना एक ख्वाब ही था जो पूरा हुआ। साथ ही 5 किताबें जिसमें मेरी किताब 'कतरा कतरा मेरा मन' और 'दृष्टिकोण' डॉ अर्पण की 'काव्यपथ' , आचार्य नवीन संकल्प जी की 'अव्यक्त प्रवाह' , मातृभाषा.कॉम और 4 महीने की वेब पत्रिका यानी कुल 16 किताबें 4 महीने में संपादित की।
अंतरा व्हाट्सअप को संभाला पिंकी जी ने। संचालक मंडल से विफल जी, देवेंद्र जी, कैलाश भैय्या, समकित, अर्पण और कीर्ति ने बहुत संबल दिया। मैंने पूरा श्रम किताबों, सम्मान संबंधित सामग्रियों में और डॉ. अर्पण ने आयोजन को उत्कृष्ट बनाने में लगा दिया।
नतीजा एक पारिवारिक परिवेश में, एक साहित्यिक आयोजन का सम्पन्न होना। सफलता की बात मैं नहीं करूंगी क्योंकि वो बात सभी स्वजनों के संस्मरण कह रहे हैं। खुशी से आत्मविभोर हूँ क्योंकि
अंतराशब्दशक्ति मेरा परिवार बन गया है और उसका एक-एक सदस्य मेरे परिवार का हिस्सा है। उस परिवार का प्रेम हमेशा बना रहे हम हर कदम साथ चलकर हिन्दीग्राम और मातृभाषा उन्नयन संस्थान के माध्यम से हिन्दी के लिए साहित्यिक आहुतियां देते हुए एक महायज्ञ का हिस्सा बन कर हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए प्रतिबद्ध रहेंगे यही कामना करती हूं।
इन सभी कार्यों में समकित,अर्पण-शिखा, तन्मय-जयति-जैनम का यानि मेरे पूरे परिवार का जो सहयोग मुझे मिला है उसके लिए आभार बहुत छोटा शब्द है।
अर्पण के लिए एक बात *हाँ! मेरी आँखों मे आज भी नींद नहीं है क्योंकि ये पहला पड़ाव था जो हिन्दी माँ के लिए हमनें साथ तय किया पर हमारी साझेदारी का लक्ष्य हमारा वो सपना है जिसके लिए पूरे देश में साथ-साथ काम करना है,...और वादा पैर कितने भी कमजोर हों हौसलों को कमजोर नहीं होने दूंगी*

प्रीति सुराना

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