Friday 4 August 2017

'मीठी नींद'

सागर किनारे बैठी
सहेजती
गीली रेत
निकालती हूँ उसमें से
छोटे जीव जंतु
कुछ शंख सीपियाँ
चमकीले पत्थर
और किस्मत से मिले
कुछ खरे मोती भी,..

बनाती हूँ
अपनी कल्पना से
सूझ बूझ से
हौसले से
हल्की थपकियों
और
स्निग्ध स्पर्श
रेत के छोटे छोटे घरौंदे
बिल्कुल आस पास,..

सजाती हूँ
उन घरोंदों को
सहेजे हुए सीपियों
शंखों पत्थरों
और मोतियों से
खास बात ये
कोई भी घरौंदा
बड़ा या महलनुमा नही
सब एक बराबर,..

एक ख्वाहिश सब मेरे आसपास हों
समानता, सहृदयता और सामंजस्य लिए
आपसी समझ और विश्वास आधार हो
पर अचानक उन घरोंदों से
निकल आते हैं छोटे-छोटे इंसान
मेरी नीयत पर लेकर बड़े बड़े सवाल
अविश्वास, तोहमतें, शिकायतें,
दरकार मेरे निःस्वार्थ होने के सबूत की
और मैं डर से कांप जाती हूँ,....

अचानक छटपटाती हूँ
महसूस करती हूं खुद को
अकेली, कमजोर, बेबस और डरी हुई,
जी करता है जोर से चीखकर पूछुं
यूँ तोहमतों पर मेहनत और समय बरबाद करने
या सब बना बनाया बिगाड़ने की बजाय
खुद क्यों नहीं बनाते कोई सुंदर जहान
पर आवाज़ निकलती ही नही
घुटती है अंदर तक सिर्फ मैं सुन पाती हूँ,...

और
घबराकर
पसीने से लथपथ
जाग जाती हूँ
टूट जाता है एक बुरा सपना
कई रातों से
जारी है ये *सिलसिला*
कई रातों से मैं सोई ही नहीं
मीठी नींद,..

प्रीति सुराना

0 comments:

Post a Comment